वे उतर रहे हैं
तकरीबन 20 से भी कम उम्र के लड़के-लड़कियां और बुजुर्ग दिल्ली जैसे कई शहरों में जीवन यापन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अक्सर ऐसे लोग अपनी मूल जगहों से बहुत दूर हैं। वे भारत के कई प्रांतों से हैं। मैं अक्सर उनकी भाषा नहीं जानता हूं। सिर्फ भंगिमाओं से पहचानता हूं और सिर्फ सोच पाता हूं कि वे दुष्कर जीवन जी रहे हैं। वे हर शाम के बाजार में दिखते हैं और उनके हाथों में पॉलिथिनें झूलती हैं, जिनका मैं वजन महसूस करता हूं।
सिर्फ लिख पाता हूँ।
बस धूप उतर रही है
कांच की विशाल इमारतों से।
सूरज कहीं और चला गया है
वह किसी समंदर में नहीं डूब रहा है।
समंदर कहीं और है विशाल।
‘हम यहां हैं’ होते हुए कहीं और हैं
घरों के बाद घर-हीन
जब शाम यहां नहीं तो कहां होगी वह?
क्या वह हमारे कस्बों में उतर रही होगी
पानी में रंग घुल रहा होगा
क्या बगुले शांत सब निरखते
और कस्बे हमें खोजते होंगे।
पूछते होंगे-
क्या तुमने उनको देखा है?
बहुत दिनों से नहीं दिखे वे।
स्मृति दूब की तरह हिल रही है
सड़क का रंग गाढ़ा पड़ रहा है
मुरझाते हुए दिन में
एक शाम उदार, कमजोर प्रविष्ट कर रही है
जीवन की छोटी और जरूरी इच्छाएं झुलसी पड़ी हैं,
लगभग मृत
वे उतर रहे हैं
एक पूरे दिन की अर्थहीन कवायद के बाद
धूप उतर रही है
शाम उतर रही है
वे उतर रहे हैं
बसें, सड़कें कागज को टिकटों से भर रहे हैं
वे पैरों से रौंदी जा रही
जिन पर वे हर दिन गुमेची-भाषा में लिखते हैं
यात्राओं का जिक्र
इस तरह न वे कवि ठहरे
न वे लेखक
न रोजनामचा लिखने वाले
न अपने संघर्ष के प्रपंचक
वे उतर रहे हैं
बसों-रेलों में ठुंसे
वे उतर रहे हैं
अपनी ही कथाओं के नायक-नायिकाएं
अपने भीतर घोंटते हुए चरित्र
वे उतर रहे हैं ठंडी गलियों में
गलियों के भीतर गलियां हैं
वे प्रविष्ट हो रहे हैं उनमें
एक पूरी रात के लिए
स्वप्नहीन और शुष्क नींद में उतरने के लिए
एक कमरे के चौकोर में
वे उतर रहे हैं।
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