आदमी का जीवन:3

अंतिम क्षण




                                                                                   फोटो: अमित

उन्हें लड़ते देखता हूँ। इस उम्र में आकर अब हिंसा के लिए ताकत नहीं बची है। यह नहीं कह सकता हूँ कि अगर ताकत बची होती तो वे हिंसा कर रहे होते। बहुत खराब शब्द भी मुलायम लग रहे हैं। अगर ताकत न हो तो आदमी एक शब्द को भी इस तरह नहीं कह सकता है कि वह बुरा लगे। जैसे बच्चे सोफे पर पड़े कुशन से लड़ने का खेल खेलते हैं, उस तरह का कोई खेल है उनका। अगर खेल न हो तो भी जैसे न लड़ना एक आदत हो, उस तरह ही लड़ना आदत। या शायद एक यही जगह है जहाँ वे उलझे रह गए हैं। आदमी की दुनिया में ऐसी बहुत सी गिरह होती है। सब आदमियों के जीवन में अलग-अलग गिरह। सब अपनी-अपनी गाँठ खोलते रहते हैं। फिर भी दुनिया में बहुत सी गाँठ ऐसी होती हैं जो न खुलने के लिए लगती हैं। मृत्यु के समय बची रही हमारी फुसफुसाहटों में उनका जिक्र बचा रह जाता है।


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