और बच्चे बेफिक्र होकर खेल रहे हैं

वह न मोर चीन्हती है न पंख

न जानती है मोर का नाच

खेल की उम्र है तो खेलती है।

हम दिन और रात के फेर में फँसे रहते हैं

और जीवन हर क्षण नष्ट होता हुआ बढ़ता है

नष्ट प्राय, संभावनाहीन

ठीक हमारे सामने से गुजरता।

उसके लिए यह सब एक खेल ठहरता है

बच्ची रंगीन पेंसिलों से रेख और बुंदियां बनाती है

और कहती है-

फूल है ये

दिन का और रात का।

सुनो! तुम मेरे लिए मोर के पंख लाओगे, रंगीन।

भाषा सीखने के दिनों में जब वह बोल जाती है कुछ भी सरपट

तो कई बार भाषा इतनी अनगढ़

नहीं रह जाती है।


मैं सोचता हूँ-

बच्चों पर असर हो रहा है हमारा

काश! हम यह नहीं होते जो हैं

काश! यह जीवन एक खेल होता

उसी तरह

जैसे- संसार भर के बच्चे खेलते हैं

जैसे- वह खेलती है बेफिक्र

और कहती है

सुनो! लाना मोर के पंख

और उसे दिन की और रात की

पोटलियों में लपेट कर लाना

मैं खोजता रहता हूँ अर्थ

सोचता हूँ

कि क्या मैं मोर को जानता हूँ

और जानता हूँ मोर का नाच

और पँख?

कि क्या जब नाचता है मग्न

और इतना नाचता है

बादल के नीचे उतरने के दिनों में

और इतना नाचता है

कि पँख टूट कर गिरता है

बहुत धीमी आवाज में धरती पर

एक पँख होता हुआ पँख-हीन

अपने समूचे आकार की धमक

के साथ गिरता है।

और नाहक एक देवता के जूड़े में खुँसा

अलंकरण का साधन बन जाता है।

सदियों से मोर नाच रहे

सदियों से पँख गिर रहे

सदियों से दिन-रात

जिनमें बच्चे खेल रहे हैं अनवरत।

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