आदमी का जीवन:5

कील

(अमित और आशुतोष के लिए)
इस कहानी में दो अलग-अलग घरों के प्रसंग को एक ही घर की दो दीवारों के प्रसंग में बदला गया है।

दिल्ली बहुत कसा शहर है। घर एक-दूसरे के इतने करीब हैं जैसे एक-दूसरे के काँधे पर हाथ रखे लोगों की कतार खड़ी हो। लेकिन वे बहुत पास होकर भी बहुत दूर लगते हैं। किसी घर में कोई अनबन नहीं है, फिर भी सामने-सामने के घर जैसे एक दूसरे से रूठे हुए लगते हैं। घरों की आवाज सुनाई देती है, घरों का सन्नाटा सुनाई देता है या फिर रसोइयों की गंध चली आती है। लोग कभी नहीं आते हैं। यह कहानी गंध और आवाज की है, जो किराए के ऐसे ही एक घर में चली आती थी।

रात दीवार के उस पार न जाने कहाँ से टेल्कम की गंध आकर मेरे बिस्तर के पास दीवार के कोने में ठहर जाती थी। शुरू-शुरु में मैं समझने की कोशिश करता कि क्या गंध पूरे कमरे में है। जरा सा भी हिलने पर गंध कमरे में नहीं मिलती। वह उसी कोने में ठहरी रहती। शायद वह लड़की रात की शिफ्ट से लौटती थी। दीवार के पास वही तो रहती थी। लेकिन न जाने क्या आदत थी उसकी कि आधी रात को रोज ही चिउड़ा भूनने लगती। शायद वह शिफ्ट से लौटती तो तरोताजा होती, टेल्कम छिड़कती और फिर चिउड़े की उसकी रोज की तलब। कई बार मैं दीवार में तलाशने की कोशिश करता कि कहीं कोई झरोखा तो नहीं। कोई छेद तो नहीं। शायद हवा उसे बहाकर ले आती थी। किसी-किसी दिन रात जब टेल्कम नहीं महकता तो सोचता कि वह शायद छुट्टियों में कहीं चली गयी है। लेकिन यह कहानी उस गंध की नहीं है। यह कहानी कमबख्त उस कील की है जो दूसरी तरफ की दीवार में कहीं ठुँक रही थी। रात 10 के बाद न जाने कौन था जो दीवार के उस पार कुछ ठोंकने लगता था। जैसे उसने दस बार ठोंका और फिर आवाज बंद हो गयी। लेकिन हफ्तों तक कोई एक ही जगह कील कैसे ठोंक सकता था। बहुत बार तंग आकर मैंने दीवार में अंदाजा कि उस पास कौन सी जगह कील ठुंक रही होगी। और फिर इधर से दो बार दीवार पर दे मारता। आवाज आनी बंद हो जाती। लेकिन यह हफ्तों तक चला। मुझे कभी नहीं पता चला कि रोज एक ही वक्त पर कील ठोंकने की आवाज क्यों आने लगती थी। मैंने कयास लगाया कि हो सकता है कि वहाँ उसकी रसोई हो। चूँकि दिल्ली के घरों की दीवार में रेत बहुत होती है, कील ठहरती नहीं है। हो सकता है कि वह कील ढीली हो जाती हो, जिस पर शायद वह रसोई का कपड़ा टाँगता हो। लेकिन यह काम तो वह ड्रिल से भी कर सकता है। हो सकता है कि उसके पास ड्रिल मशीन न हो।

बगल के घर में कबूतर पाले हुए थे। छत के ऊपर लकड़ी का पुराना जालीदार दड़बा रखा था। छुट्टी के वक्त एक आदमी छत पर उन्हें सींटी बजाकर उड़ाता था। कबूतर उड़ते और फिर छत पर उतर आते थे। हवा में कबूतर ऐसे छूटकर लौट आते थे जैसे छोटे दड़बे से उड़कर, वे बड़े दड़बे में चले गए हों, लेकिन हों दड़बे में ही। जिस रोज दड़बे पर निगाह गयी उस दिन यह सूझा कि हो न हो यही आदमी है। रात लौटकर वह बचे हुए समय में दड़बा बनाता है। और लकड़ी के फट्टे को दीवार पर रखकर ठोंकता है। इस तरह वह रोज थोड़ा-थोड़ा करके नया दड़बा बनाता जाता होगा। एक वक्त के बाद दीवार से वैसी आवाजें आना बंद हो गयी थी। या तो रसोई की कील दीवार में रुक गयी थी या दड़बा बन कर तैयार हो गया था।

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