आदमी का जीवन: 2

                                                                                                                                                                         फोटो: सोमप्रभ

दो बहनें

दो बहनें दीवाली पर नैहर लौटीं हैं. नैहर में उनके कोई न बचा है अब. आंगन में भांग उग आई थी. वेदी उखड़ गई थी. जिस पर उनका ब्याह हुआ. जिस पर मचिया रख सर्दियों की धूप वे खाती थीं और मां उसी पर बैठ चावल फटकती थीं. पिता भी नहीं रह गया गए. शरीफे अब भी फल रहे हैं. वे लौटीं कि इस साल आंगन बुहारेंगी. पानी की छींट मारेंगी. घास-पात साफ करेंगी. कीट, पतंगों और सांप का वास हो गया है घर.

सुबेराती ने चूना भिगाते हुए कहा, बहिनी अब के लगवावत है गेरू. लेकिन उन्होंने पिता की तरह चूने और गेरू से ही पुतवाया है घर. डिस्टेंपर से न जाने क्यों चिढ़ थी पिता को. और दीवार के भीतर बनी एक गहरी जगह में शरीफे पकने के लिए रख दिए हैं. जैसे बचपन में रखतीं थी, ढ़ेंपी में चूने लगाकर.

वे शाम बाजार गयीं और लौटीं. बड़ी बहन आगे-आगे और छोटी पीछे. ‘जिज्जी धीम चलव.’ धीमे से कहती हैं छोटी. ‘संझा होत है. दिया-बाती कय समय होयगा.’ बड़ी चिंता से कहती हैं. छोटी बहन को जिज्जी में अम्मा दिखती हैं. वह बड़ी के कंधे पर हाथ रख कर कहती है, जिज्जी तुम अब बिलकुल अम्मा की तरह बोलती हो. जिज्जी तुम्हारे हाथों में मोर पंख, अम्मा के हाथों का मोर पंख है. तेज-तेज चलते हुए वे चिंता में दुहरातीं हैं. ‘जल्दी जल्दी चलव बहिनी. संझा होत है.’ छोटी बहिन देखती है कि जिज्जी की चिंता का रंग शाम का नहीं है, बिलकुल अम्मा के रंग का है. और शाम उनसे दूर नहीं है, आस-पास है.

(इसमें कस्बे के ऐसे ही परिवारों का समय में बिला जाने का प्रसंग भी अनायास शामिल हो गया है. उनके उजड़ने-बसने की कहानी भी. दीवाली के बाजार में दो ऐसी बहनों को देखा. उम्र तकरीबन पचास और चालीस या पैंतीस. बहुत भला सा दृश्य था. बड़ी सच के दृश्य में भी मोरपंख लिए जा रही थीं. और छोटी पीछे- पीछे. दृश्य का रंग इतना गाढ़ा था कि बहुत ही सजा हुआ बाजार भी फीका लग रहा था. बाहर के दृश्य पर दूसरे रंग के दृश्य आते और गायब होते रहे. भीतर के रास्ते पर दो बहने हाथों में धीमे-धीमे हिलता हुआ मोरपंख लिए चली जा रही थीं.

दीवाली का बाजार घूमते हुए उस शाम कपड़ों की बनीं ये दिखीं. वे मुझे दो बहनों की तरह दिखीं. जब मैं पहुंचा तो तीन बचीं थीं. मैंने इन दो को लिया. तीसरी थोड़ी तुनकमिजाज लग रही थी. अधेड़ आदमी ने बताया कि दर्जी हूं. और उनके घर में एक बुजुर्ग महिला इसे बस दीवाली-दीवाली बना देती हैं. उन्हें बनाना अच्छा लगता है, तो वे बना देती हैं और मैं बाज़ार में इसे लेकर कुछ देर खड़ा हो जाता हूं. कपड़ों के खिलौने कम लोग लेते हैं. किसी किसी को अच्छा लगता है, तो ले जाता है. ज्यादातर नहीं खरीदते. लेकिन मैं इसकी परवाह नहीं करता. यह कथा या कथा नहीं, इस दृश्य में खो जाने और दृश्य कहीं खो न जाए के मोह में लिखी गई हैं. जीवन सरल रेखा पर नहीं बसा है. वक्र पर घटित होते जीवन में यह सोचना कितना सुख पाना है कि यह दृश्य बीत ही नहीं रहा है. दो उम्रदराज बहनें हाथों में मोरपंख लिए एक शाम चली जा रही हैं. बड़ी तेज-तेज और छोटी पीछे-पीछे. अब भीतर देखिए तो सही.)

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