आदमी का जीवन:1


भूमिका
मुझे नहीं पता है कि ये कहानियां हैं या नहीं हैं। परिभाषाओं से मेरा यकीन जा चुका है और मेरी दिलचस्पी भी कथा की किसी परिभाषा में नहीं है। यह अधूरी लगेंगी या कहानी का सार। लेकिन जिस प्रसंग से मेरा संबंध, जितने समय का है, मैं उतने देर की कहानी कहूँगा। इसमें आगे आने वाले बहुत सारे पात्र मेरे करीब से होकर गुजर गए हैं या वे गुजरेंगे। मेरा संबंध इन प्रसंगों से बहुत कम समय का है। पूरी कहानी मुझे नहीं मालूम है। ये कहानियाँ ऐसे पात्रों के जीवन का अधूरा दस्तावेज है। मुझे नहीं पता कि मैं इसे अपनी कल्पना से कैसे लंबी कहानी में बदल सकता हूँ। अव्वल मैं जितना खुद को जानता हूँ, उस हिसाब से मेरी दिलचस्पी इसमें बिलकुल नहीं है। मुझे लगता है कि ये ऐसे ही और अभी ही कही जा सकती हैं। समय बीत जाने पर इनका कोई भविष्य नहीं है। वैसे भी मेरी दिलचस्पी आदमी के जीवन में है और मैं इसे ऐसे ही कहना चाहता हूँ। हो सकता है कि यह किसी अंत पर पहुँचती लगें या बीच में छूट जाएँ। यह हो सकता है। लेकिन यह सब मेरे हाथ में नहीं है। अब जो कहानी मुझे भी पूरी न मिली हो मैं उसे काल्पनिक प्रसंगों से भरकर सच की घटनाओं पर आधारित कहकर, अनैतिक काम नहीं करुँगा।  यह जैसे घटित हुई हैं वैसे ही कहूँगा। जहाँ मैं कहानीकार के रूप में कुछ बदलाव कर रहा हूँ या कहानी की टेक्नीक का इस्तेमाल कर रहा हूँ, पाठक उससे भी परिचित होंगे। यह शायद एक पाठक के लिए दिलचस्पी का कारण हो सकता है कि एक वास्तविक प्रसंग कितने मामूली हेर-फेर से कहानी में बदल जाता है। एक कहानीकार अपने लिखने के स्रोतों को गुप्त रखना चाहता है और मैं उसे सार्वजनिक कर रहा हूँ। इन कहानियों में मेरी भूमिका बहुत सीमित है। मैं संयोगवश उस जगह उपस्थित हूँ, जहाँ प्रसंग घटित हो रहा है। ये सारी कहानियाँ 'आदमी का जीवन' शीर्षक से लिखी जा रही हैं। एक सुविधा और पहचान के लिए इन कहानियों के अलग-अलग भी शीर्षक होंगे। अंतिम बात, एक पाठक के तौर पर जिस तरह आप नहीं जानते हैं कि ये सारी कहानियां जाकर खत्म होंगी, ठीक उसी तरह मैं भी नहीं जानता हूँ कि इनका अंत क्या होगा। जैसे मैं इन कहानियों को लिखते हुए आकार लेते, बदलते हुए देखूँगा उसी तरह आप भी देखेंगे। उम्मीद करता हूँ कि आप इस तरह के प्रयोग में दिलचस्पी लेंगे। हम जानते हैं कि पढ़ने और लिखने से जुड़ीं आदतें हमें बार-बार एक खास तरह के ढाँचे में ही पढ़ने और लिखने के लिए धकेलती हैं। उम्मीद है कि ऐसी आदतों के कारण कुछ लोग भिड़ेंगे, इन्हें कहानियों के तौर पर मानने से नकार देंगे या इसे खिलवाड़ कहेंगे। लेकिन एक कहानी आदमी की दुनिया को ही तरह-तरह से प्रस्तुत करती हैं, पात्रों के जीवन को दर्शाता यह दस्तावेज उससे अलग नहीं होगा। हैं तो यह आदमी के जीवन के ही किस्से और इन सभी कहानियों का संबंध जीवित और मृत व्यक्तियों, स्थान और वास्तविक प्रसंगों से है।

श्री नि.पा. ,अनाम पा. और कुं.बि.पा.


                                                                                             रेखांकन: सोमप्रभ


 रेखांकन का कहानी से कोई संबंध नहीं है। हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं की तरह यहाँ मात्र सजावट के लिए प्रयोग किया गया है।

                                                        
                                                         मुझे न उनका अतीत पता था।
                                                        मुझे न उनका भविष्य पता था।।

वे इसी संसार के थे और हमारे समय का ही हिस्सा थे। आदमी को ,यान को ,यहां तक कि कुत्ते को भी चांद पर गए कितने बरस बीत चुके थे। पर वे अभी भी वहीं थे। जस के तस। वाक्य के अंत पर लगे विराम की तरह। इस विशाल पृथ्वी पर वे यानी श्री.नि.पा. अपने नीले रंग के बैग में हिंदी व्याकरण पर लिखी गयी डायरी रखते और साइकिल पर चढ कर मंद रफ्तार विभाग तक पहुंचते। श्री.नि.पा. ऐसे ही थे। जब वे साइकिल पर होते तो काले रंग के बेल्ट से बंधा गोलार्ध साइकिल के डंडे पर धरा रहता। कभी-कभी देखो तो लगता कि वे किसी दूसरे काल के आदमी हों। वे अपनी साइकिल पर बैठकर भी दुनिया के नजारे के बजाए रामायण के बारे में अधिक सोचते हुए लगते। हमें तो कभी-कभी लगता कि श्री.नि.पा. रामायण के अलावा किसी और चीज के बारे में सोचते ही नहीं। यह तो नहीं पता कि वे कितने धर्मपरायण थे पर वे महाकाव्य के बारे में कितने चिंतनशील  मनुष्य थे, इसका अंदाजा हमें तब लगा जब श्री.नि.पा. किसी भी तरह के नए से नए आधुनिक से आधुनिक सवाल को रामायण से हल कर देते। श्री.नि.पा. हमें अपनी डायरी से बोल-बोल कर परिभाषाएं टिपाते फिर किसी दिन सुनते। वे सही परिभाषा के मामले में अक्षरश अपनी डायरी सुनना चाहते। वे रामायण और अपनी डायरी को ही ज्ञान के अंतिम स्रोत की तरह मानते थे। हालांकि वे भाषा-विज्ञान पढाते थे पर हमने पाया था कि कुल क्रिया-कर और रंजक विधान बघारने के बाद भी उनमें स्वर-दोष था। वह बोलते तो शब्दों को आपस में कई बार जुटा देते। अक्सर तो वह अपनी रेंकती आवाज को इतना दबाते कि श जैसा साफ स्वर वाला अक्षर च में बदल-बदल जाता इससे कई बार वे अर्थ का अनर्थ कर देते।  कभी-कभी अपनी कुल खीझ के बाद भी हम यह सोचते कि मान लिया किसी दिन यदि उनकी डायरी इस विशाल पृथ्वी पर गुम जाए तो वे कितने दुखी हो जाएंगे। क्या उस दुख में उनका श्याम-वर्ण पीला पड़ जाएगा। हालांकि हम नहीं जान पाते थे कि दुख में उनके चेहरे का रंग क्या होगापर वे निश्चित ही उसे जंगल, झाड़ियों, नदी,पर्वत-पठारों में खोजते निकल जाएंगे।

श्री.नि.पा. के एक शोधार्थी थे अनाम पा.। श्री.नि.पा. ने बड़ा माथा भिड़ाकर उनके लिए शोध का विषय खोजा था। रामायण में आधुनिक संचार-माध्यम के स्रोत । हम सबके लिए इस विषय पर अपना शीश चढाने के अलावा दूसरा कोई रास्ता न था।  माथे पर त्रिपुंड लगाकर जब वे निकलते तो यूनिवर्सिटी की सड़क किसी और काल में चली जाती। प्रमुदित होकर वे वृक्षों, पक्षियों और मार्ग के मनुष्यों से हिंदी में संस्कृत मिलाकर-मिलाकर बोलते-बतियाते । जैसे- यज्ञ में घी मिलाकर आहुति दे रहे हों। अटूट-शिव भक्त थे। वे जिस हॉस्टल में रहते थे वहां के रहने वाले बताते कि रावण की तरह मंत्र-जाप करता है। पूरे कमरे को मंदिर बना रखा है। हमें तो लगता है कि उसके इस तांडव से हॉस्टल की इमारत किसी दिन दुख में गिर जाएगी।

कहते हैं कि श्री.नि.पा. का शोधार्थी और अतिप्रिय छात्र सदा ही उनका कोई समगोत्री होता था। वही पवित्र छात्र उस ज्ञान-थैले को स्पर्श कर सकता था। जिसमें वह डायरी रखी होती थी।
विभाग के बाहर बड़ा ही हरियल ,पत्तेदार किस्म का कोई पेड़ था। जिसके आसपास सब अपनी साइकिलें, गाड़ियां खड़ा करते। फुर्सत में खड़े होकर बतियाते। कुछ चापलूस वहीं अध्यापकों के चरण-धूल उठाने के फिराक में रहते। संसार की सब तरह की भली-बुरी, बहुरंगी गतिविधियों से वह छोटी सी जगह भरी रहती। उसी जगह पर श्री.नि.पा. के शोधार्थी उनके लिए प्रतीक्षारत होते। उसी वृक्ष के नीचे। जिसकी छाया में उनकी साइकिल खड़ी होती। जहाँ वह ज्ञान-थैला उतरता। जिसे वह लपकते और श्री.नि.पा. के ऊपरी मंजिले के कमरे तक पहुंचाते। इस ओहदे पर हमारी ही कक्षा के कुं.वि.पा. ने खुद को कनिष्ठ पद पर नियुक्त कर लिया था। वह ऊपरी मंजिले पर हमारी कक्षा की खिड़की से टपकने की हद तक श्री.नि.पा. का रास्ता देखता।

कुं.वि.पा. दुबला सा था। वह चलता तो अजीब उत्साह से भरा रहता। साइकिल हमेशा साथ होती। पर मैंने उसे उस पर कम ही बैठा हुआ देखा होगा। ऐसा लगता कि वह साइकिल के साथ पैदल टहलने निकला हो। वह हमेशा पैदल चलता, दुबला, फुर्तीला बना रहता और श्री.नि.पा. के चरणों पर बिजली की तेजी से गिरता। कुं.वि.पा. जैसा भी था पर उसकी हंसी बहुत प्यारी थी। वह सचमुच अपने भीतर से हंसता था औऱ हमारे लिए अबूझ बना रहता। सूती कपड़े के झोले में से वह अपना कई तहों वाला नोट-बुक निकालता। वह हमेशा कोने की सीट पर अकेला बैठता और उस अचरज से भरे नोटबुक को फैला देता। और अनवरत लिखता। मैं कभी-कभी कुं.वि.पा.को समझने के लिए पीछे से जाता और उसके कंधे पर से झूल जाता। उसके गले में प्यार से हाथ फंसा कर पूछता, कुं.वि.पा ऐसा नोट-बुक तुम्हें कहां मिलता होगा ? वह सिर्फ हंसता। अच्छा कुं.वि.पा., तुम इनमें क्या लिखते-फिरते हो हमेशा ? अच्छा कुंविपा, तुम जो लिखते हो उसे पढते कैसे हो  हा हा कर वह हंसता। मैं वापस अपनी सीट पर उसे न समझ पाने की निराशा में लौट आता। वह पलट कर देखता और फिर हा हा कर हंसता। फिर उस बहुतही पोथी में लिखने लगता। हममें से कई यह मानने लगे थे कि उस दुर्लभ लिपि में लिखी बहुतही पोथी को सिर्फ श्रीनिपा ही बांच सकते हैं। क्योंकि कहा गया है कि खग जाने खग की भाषा यानी कुं.वि.पा. को तो श्रीनिपा ही समझ सकते हैं।

कुं.बि.पा. मुझे पहली बार मिला तब मैं विभाग की एक बेंच पर बैठा हुआ था। हम नए-नए थे। उसने काफी देर तक बात की। वह बहुत ही सरल था। बिहार के दूर-दराज का। उसने पहली ही बार में नि:संकोच अपना हालात कह सुनाया। पिता अस्थमा से पीड़ित थे। कुछ बरसों में घर के हालात तेजी से बदलने वाले थे। उसकी पढाई अधूरी थी। मैंने उसे आश्वस्त किया। मुझे नहीं पता कि वह वास्तव में तब भी उतना ही चापलूस था या नहीं लेकिन मैं कुं.बि.पा की परिस्थितियों को समझता था। उसके पास शायद कोई और रास्ता नहीं था।
हमने श्रीनिपा की कक्षा में वह कठिन छमहीने तपस्वी की तरह सारे झंझावतों के साथ बिता दिया। हमने योग्यतम की उत्तरजीविता के संघर्ष को कितना जल्द सीख लिया था। अंग के उपयोग और दुरुपयोग के सिद्घांत से प्रेरित होकर हमने नए लक्षण उपार्जित कर लिया। हम उनके चेहरे की तरफ ध्यान से देखते हुए कुछ न सुन पाने की कला विकसित कर चुके थे। कि वह अचानक ही दिखा। बुलबुला,नन्हा सा ,बड़ा ही स्थिर चित्त और ओठों के किनारे पर ठहरा हुआ। कभी-कभी वह बड़ा हो जाता। बड़ी देर तक ठहरा रहता और जब श्रीनिपा ज्ञान की मूर्छा से निकलकर आते ,विषयांतर करते तब फिर वहीं से एक नया बुलबुला बनता। हममें से जितने इस रहस्यमयी बुलबुले की जानकारी रखते थे, वे उसके बनने –फूटने के आनंद में खोए रहते। हम उनके चेहरे की तरफ देखते रहते। बुलबुले गिनते रहते थे। हालांकि ऐसा कम ही होता जब कई बुलबुले बने हों। वे विषयांतर ही नहीं करते। कई बार कक्षा खत्म हो जाती और श्रीनिपा के ओठों के किनारे पर थूक का वह बुलबुला ठहरा ही रह जाता। ऐसे ही एक दिन मैनें देखा कि श्रीनिपा के जाने के बाद भी कुं.वि.पा. तो लिखता चला जाता था। मैनें उसे पुकार कर पहेली थमायी, कुंविपा. सुनो तो। बुलबुला फूटा ही नहीं, रहस्य टूटा ही नहीं।बूझो तो जानूं। वह ह हा कर हंसा। वह बुलबुले के रहस्य से अनजान था। मेरा मानना था कि केवल विषमगोत्री ही उस बुलबुले से परिचित हो सकते थे। अन्य नहीं।

मुझे कुंविपा. की बेतरह याद आती है।  सुनता हूँ कि अब भी श्रीनि.पा. उसी तरह है। अनाम पा. और कुं.वि.पा. कहीं बिला गए। दूसरे असंख्य पा. उसी पत्तेदार ,हरियल पेड़ के नीचे प्रतीक्षारत रहते हैं । बुलबुला अब भी बनता है,बड़ा होता जाता है और ठीक भाषा-विज्ञानी श्रीनि.पा. के चेहरे पर छितरता हुआ फूटता है... फच्चाक
 !           

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